Monday, September 16, 2019

ईरान और सऊदी अरब में दुश्मनी क्यों है

सऊदी अरब और ईरान के बीच टकराव चल रहा है. दोनों देश लंबे वक़्त से एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हैं लेकिन हाल के दिनों में दोनों के बीच तल्खी और बढ़ी है. दोनों शक्तिशाली पड़ोसियों के बीच यह संघर्ष लंबे समय से क्षेत्रीय प्रभुत्व को लेकर चल रहा है.
दशकों पुराने इस संघर्ष के केंद्र में धर्म है. दोनों ही इस्लामिक देश हैं लेकिन दोनों सुन्नी और शिया प्रभुत्व वाले हैं.
ईरान शिया मुस्लिम बहुल है, वहीं सऊदी अरब सुन्नी बहुल.
लगभग पूरे मध्य-पूर्व में यह धार्मिक बँटवारा देखने को मिलता है. यहां के देशों में कुछ शिया बहुल हैं तो कुछ सुन्नी बहुल. समर्थन और सलाह के लिए कुछ देश ईरान तो कुछ सऊदी अरब की ओर देखते हैं.
ऐतिहासिक रूप से सऊदी अरब में राजतंत्र रहा है. सुन्नी प्रभुत्व वाला सऊदी अरब इस्लाम का जन्म स्थल है और इस्लामिक दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण जगहों में शामिल है. लिहाजा यह ख़ुद को मुस्लिम दुनिया के नेता के रूप में देखता है.
हालांकि, 1979 में इसे ईरान में हुई इस्लामिक क्रांति से चुनौती मिली, जिससे इस क्षेत्र में एक नए तरह का राज्य बना- एक तरह का क्रांतिकारी धर्मतंत्र वाली शासन प्रणालि. उनके पास इस मॉडल को दुनिया भर में फैलाने का स्पष्ट लक्ष्य था.
ख़ास कर बीते 15 सालों में, लगातार कुछ घटनाओं की वजह से सऊदी अरब और ईरान के बीच मतभेदों में बेहद तेज़ी आई है.
2003 में अमरीका ने ईरान के प्रमुख विरोधी इराक़ पर आक्रमण कर सद्दाम हुसैन की सत्ता को तहस नहस कर दिया. इससे यहां शिया बहुल सरकार के लिए रास्ता खुल गया और देश में ईरान का प्रभाव तब से तेज़ी से बढ़ा है.
2011 की स्थिति यह थी कि कई अरब देशों में विद्रोह के स्वर बढ़ रहे थे जिसकी वजह से इस पूरे इलाक़े में राजनीतिक अस्थिरता पैदा हो गई.
ईरान और सऊदी अरब ने इस उथल-पुथल का फ़ायदा उठाते हुए सीरिया, बहरीन और यमन में अपने प्रभाव का विस्तार करना शुरू किया जिससे आपसी संदेह और बढ़े.
ईरान के आलोचकों का कहना है कि वो इस पूरे क्षेत्र में या तो ख़ुद या अपने नज़दीकियों को ही प्रभुत्व में देखना चाहता है ताकि ईरान से लेकर भूमध्य सागर तक फैले इस भूभाग पर उसका अपना नियंत्रण हो.
राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता गर्मा रही है क्योंकि ईरान कई मायनों में इस क्षेत्रीय संघर्ष को जीतता हुआ दिख रहा है.
सीरिया में राष्ट्रपति बशर अल-असद को ईरानी (और रूसी) समर्थन हासिल है और इसी के बल पर उनकी सेना सऊदी अरब के समर्थन वाले विद्रोही गुटों को व्यापक रूप से पछाड़ने में सक्षम बन गई है.
सऊदी अरब ईरान के प्रभुत्व को रोकने के लिए उतावला है और सऊदी के शासक युवा और जोशीले प्रिंस मोहम्मद बिन-सलमान का सैन्य दुस्साहस इस क्षेत्र में तनाव की स्थिति को और भी बदतर बना रहा है.
उन्होंने पड़ोसी यमन में विद्रोही हूती आंदोलन के ख़िलाफ़ चार साल से युद्ध छेड़ रखा है ताकि वहां ईरान का प्रभाव न पनप सके. लेकिन चार साल बाद अब यह उनके लिए भी महंगा दांव साबित हो रहा है.
ईरान ने उन सभी आरोपों को ख़ारिज कर दिया है जिसमें यह कहा गया है कि वो हूती विद्रोहियों को हथियार मुहैया कराता है.
हालांकि संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ तेहरान हूतियों को हथियार और तकनीक दोनों मुहैया कराने में मदद कर रहा है.
वहीं ईरान के सहयोगी देश लेबनान में शिया मिलिशिया समूह हिजबुल्लाह राजनीतिक रूप से ताक़तवर ब्लॉक का नेतृत्व करता है और एक विशाल और सशस्त्र सैनिकों का संचालन करता है.
कई जानकारों का मानना है कि सऊदी अरब ने क्षेत्रीय लड़ाई में हिजबुल्लाह की भागीदारी पर 2017 में लेबनान के प्रधानमंत्री साद हरीरी को इस्तीफ़ा देने के लिए मजबूर कर दिया. ख़ुद सऊदी अरब उनका समर्थन करता था.
मोट तौर पर कहें तो मध्य-पूर्व का वर्तमान रणनीतिक नक्शा शिया-सुन्नी के विभाजन को दर्शाता है.
सुन्नी बहुल सऊदी अरब के समर्थन में यूएई, बहरीन, मिस्र और जॉर्डन जैसे खाड़ी देश खड़े हैं.
वहीं ईरान के समर्थन में सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद हैं जिन्हें सुन्नियों के ख़िलाफ़ हिजबुल्लाह सहित ईरानी शिया मिलिशिया समूहों का भरोसा है.
इराक़ की शिया बहुल सरकार भी ईरान की क़रीबी सहयोगी है, हालांकि विरोधाभास यह है कि उसने अमरीका के साथ भी अपने क़रीबी संबंध बनाए रखे हैं. अमरीका पर वह तथाकथित इस्लामिक स्टेट के ख़िलाफ़ संघर्ष में मदद के लिए निर्भर है.
कई मायनों में यह प्रतिद्वंद्विता दोनों देशों के बीच शीत युद्ध की तरह है. जैसा कि अमरीका और सोवियत रूस के बीच कई वर्षों तक गतिरोध बना रहा.
ईरान और सऊदी अरब सीधे तौर पर नहीं लड़ रहे, लेकिन वे कई तरह के प्रॉक्सी वार में उलझे हुए हैं (वैसे संघर्ष जहां वे प्रतिद्ंवद्वी पक्षों और मिलिशिया का समर्थन करते हैं).
सीरिया एक स्पष्ट उदाहरण है जबकि यमन में सऊदी अरब ने ईरान पर विद्रोही हूतियों को बैलिस्टिक मिसाइल देने का आरोप लगाया है, जिसे सऊदी सीमा में दागा गया था.
ईरान पर खाड़ी के रणनीतिक जलमार्गों पर भी अपना ज़ोर दिखाया. इस जल मार्ग के ज़रिए ही सऊदी अरब से तेल सप्लाई की जाती हैं. अमरीका ने कहा भी है कि हाल में विदेशी टैंकरों पर हुए हमले के पीछे ईरान का हाथ था. हालांकि ईरान ने इससे इनकार किया है.